30 December 2012

ओएमजी: ओ माय गॉड (2012)

अक्षय कुमार और परेश रावल ने एक साथ बहुत सी फिल्मों में काम किया है। लेकिन शायद ये पहला मौका है कि अक्षय एक सपोर्टिंग रोल में हैं और परेश लीड रोल में।

परेश रावल उन चुनिन्दा बेहतरीन एक्टर्स में से हैं जो फिल्मों के साथ थिएटर भी करते हैं। ये फिल्म परेश के ही गुजराती नाटक 'किशन वर्सेस कन्हैय्या' का स्क्रीन एडाप्टेशन है। उस नाटक के लीड रोल में भी परेश ही थे। परेश इस फिल्म के प्रोड्यूसर भी हैं।

कांजीलालजी मेहता (परेश रावल हमेशा की तरह बेहतरीन) की दुकान एक भूकंप में धराशायी हो जाती है। इंश्योरेंस कंपनी इसे 'एक्ट ऑफ़ गॉड' बताकर पैसे देने से मना करती है। जाने अनजाने में यह प्रकरण हमें बताती है की इंश्योरेंस पेपर्स साइन करते समय उसके 'टर्म्स एंड कंडीशन्स' पढना कितना जरुरी है। कांजीलालजी के पास भगवान के खिलाफ केस करने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता। सवाल ये भी है कि भगवान सचमुच में हैं या नहीं। यानी भगवान के पास खुद को साबित करने की भी चुनौती है।

भगवान पे केस करने के बाद कांजी भाई मुसीबत में फंस जाते हैं। ऐसे में भगवान को उन्हें बचाने खुद आना पड़ता है। और यहीं से फिल्म की स्क्रिप्ट कमजोर होनी शुरू हो जाती है। इस मॉडर्न भगवान (कृष्ण वासुदेव यादव) की भूमिका अक्षय कुमार ने निभायी है, जिनकी लेटेस्ट फोटो अभी 'फेसबुक' पर अपडेट नहीं हुयी है।

फिल्म में ढोंगी धर्मगुरुओं और धर्म के नाम पर चल रहे व्यापार की पोल खोलने की कोशिश की गयी है। फिल्म के डायलॉग्स काफी तीखे हैं।

निर्देशक उमेश शुक्ला ने स्क्रिप्ट को अच्छे से हैंडल करने की कोशिश की है। लेकिन आखरी आधे घंटे में वो गड़बड़ा गये। शायद फिल्म को कमर्शियल बनाने के चक्कर में। फिल्म का क्लाइमेक्स निश्चित ही कमज़ोर है। आइटम सौंग की कोई जरुरत नहीं थी।

फिल्म पूरी तरह से परेश रावल की है। अन्य रोल में मिथुन प्रभावित करते हैं। शायद उनका रोल श्री आसाराम बापू से प्रभावित है। फिल्म में एक जगह वो कहते हैं कि 'धर्म एक अफीम है जिसकी लत आसानी से नहीं छूटती' निश्चित ही वो सही हैं।

रेटिंग: **1/2

29 December 2012

अता पता लापता (2012)

यहाँ सब कुछ है लापता

राजपाल यादव को कॉमेडी करते हमने खूब देखा है। शुरुआत उन्होंने विलेन के रोल से की। 'मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूँ', 'मैं मेरी पत्नी और वो', 'लेडीज टेलर' और 'अंडर ट्रायल' जैसी फिल्मों में उन्होंने मुख्य भूमिका भी निभायी। इस फिल्म में उन्होंने 'एक्टिंग' की है? स्टोरी लिखी, म्यूजिक कंपोज़ की, प्रोड्यूसर और डायरेक्टर भी बने।

उन्होंने टीवी और फिल्मों में छोटे-छोटे रोल करने वाले एक्टर्स को लिया, तो आशुतोष राणा जैसे सीनियर कलाकार को भी। आशुतोष जैसे बेहतरीन अभिनेता ने ये फिल्म किस मजबूरी में की, मुझे नहीं पता।

राजपाल और उनके सहयोगी कलाकार 'मकान चोरी होने' जैसी बेतुकी बात को लेकर गला फाड़ते रहे और मेरा सर दर्द बढ़ता रहा। हर 5 मिनट के बाद राजपाल अपने नौटंकी मण्डली के साथ 'अता पता लापता' करते रहे। 'एक्शन' बोलने के बाद शायद वो सेट से उठ के कहीं चले गए थे।

सेंसर बोर्ड को इस फिल्म को बैन कर देना चाहिए था। या फिर डिस्क्लेमर डाल देना चाहिये था कि 'ये फिल्म जनता के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है' निश्चित ही ये मेरे जीवन की WORST फिल्म है। राजपाल अगर एक्टिंग तक ही सिमित रहें तो बेहतर होगा।

रेटिंग: 0

24 December 2012

दबंग 2 (2012)

वन मैन शो

चुलबुल 'कुंग फूपांडे (सलमान) का तबादला कानपुर होता है, या शायद उसने खुद ही लिया है। जैसा की मक्खी (अरबाज़ खान) अपने बाप से कहता है। गुंडों की हड्डी तोड़ पिटाई करके एक स्कूली बच्चे के अपहरण और एक क़त्ल की घटना को वो चुटकी में सोल्व कर देता है। 

यह फिल्म 2010 की सुपरहिट ब्लॉकबस्टर दबंग का सीक्वल है। हालांकि ये सीक्वल कम, और रीमेक ज्यादा लगती है। दबंग से सलमान एक ब्रांड बनकर उभरे और उसके बाद उनकी तीनों फिल्में (रेडी, बॉडीगार्ड और एक था टाइगर) ज़बरदस्त हिट रही। हिट का मतलब आजकल '100 करोड़ क्लब' में शामिल होना होता है। और जिस तरह टिकट रेट्स बढ़ाये गए और अगले 2 हफ़्तों तक कोई बड़ी रिलीज़ नहीं होने वाली थी, उससे अंदाज़ा लगाया गया था की ये फिल्म आसानी से '200 करोड़ क्लब' में शामिल होगी।

बहरहाल, इस फिल्म में रोमांस और एक्शन पर ज्यादा फोकस किया गया है। मिसेज पांडे (सोनाक्षी सिन्हा) अब प्रेगनेन्ट हैं और छोटे पांडेजी के आने में अब उतना ही टाइम है, जितना लगता है। दबंग की तरह इस फिल्म में भी काफी वन लाइनर्स हैं, जिसपे सलमान के 'डाइ हार्ड' फैंस जी भर के हँसते और तालियाँ पिटते हैं।

पांडेजी के सौतेले बाप और भाई भी अब उसी के साथ रहते हैं। मक्खी अब सुधर गया है और प्रजापति पांडे (विनोद खन्ना) अपनी बीवी की यादों में डूबे रहते हैं। चुलबुल द्वारा अपने बाप को छेड़ना काफी घटिया है।  फिल्म का म्यूजिक (दबंग की तुलना में) भी कमजोर है, और पुराने धुनों और दबंग की कॉपी के अलावा और कुछ नहीं है।

अरबाज़ ने सलमान के अलावा किसी एक्टर्स को उभरने का मौका नहीं दिया। और यही फिल्म का कमज़ोर पक्ष है। हाँ, दीपक डोबरियाल जरुर कुछ प्रभावित करते हैं। रही बात स्टोरी की तो आप फिल्म में स्टोरी और एक्टिंग ढूंढ़ते रह जायेंगे। लेकिन सलमान के फैन्स को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वैसे भी वे लोग स्टोरी या एक्टिंग नहीं, बल्कि सलमान, सिर्फ सलमान को देखने जाते हैं। इस मायने में अब वो नॉर्थ के रजनीकांत बन चुके हैं। 

रेटिंग: **