21 August 2013

वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा (2013)

शोएब, जिसे फिल्म में बार बार शोहेब बोला जाता है, बम्बई का सबसे बड़ा गैंगस्टर है। पुलिस को उसकी तलाश है। हम उसे कभी क्रिकेट मैच के दौरान स्टेडियम में देखते हैं, तो कभी किसी फिल्म के सेट और अवार्ड शो में। सरेआम हत्या करने के बाद वो बड़े आराम से पुलिस स्टेशन से घूम के आ जाता है। इतना ही नहीं, हम उसे वेश बदल कर टैक्सी चलाते, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचते और गाते भी देख सकते हैं। 

बॉलीवुड में हर दूसरी फिल्म का सीक्वल बनना अब आम बात हो गयी है। ज्यादातर सीक्वल्स (जोकि हड़बड़ी में बनायी गयी होती है) से स्टोरी और स्क्रिप्ट गायब होती है। इसके बावजूद कभी कभी निर्देशक दर्शकों को बाँधने में कामयाब हो जाते हैं। उदाहरण के लिये इसी साल रिलीज़ हुई साहब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स में तिग्मांशु बिना स्टोरी के भी दर्शकों को पौने तीन घंटे तक बाँधने में सफल हुये थे। लेकिन वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा शुरू से अंत तक उबाऊ और बोझिल है। 

फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी स्टोरी और स्क्रिप्ट (अगर फिल्म में वाकई है तो) है। यहाँ मिलन लुथरिया कंफ्यूज नज़र आते हैं। फिल्म ना तो गैंगस्टर ड्रामा है, ना ही लव ट्रायंगल। फिल्म के तीनों मुख्य पात्र यहाँ शायराना अंदाज़ में धांसू डायलॉगबाज़ी करते नज़र आते हैं।

अक्षय और इमरान खान अपने अपने रोल में फिट नहीं हैं। अक्षय ने इससे पहले कई नेगेटिव किरदार निभाये हैं। लेकिन यहाँ उन्होंने पुरी तरह से ओवर-एक्टिंग करी है। यहां तक की इमरान हाशमी ने इस फिल्म के प्रीक्वल में उनसे कहीं बेहतर एक्टिंग की थी। 

इमरान खान पर गैंगस्टर रोल सूट नहीं करता। सोनाक्षी जितनी बेहतरीन लूटेरा में थी, उतनी ही खराब इस फिल्म में। केवल पितोबाश और अभिमन्यु सिंह कुछ प्रभावित करते हैं, जो फिल्म के महज दो-चार दृश्यों में नज़र आते हैं। 

कुल मिला के वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा  देखने की बजाय वन्स अपॉन मुंबई (2010) को दोबारा देखना अच्छा रहेगा। वो इससे कहीं ज्यादा, ज्यादा बेहतर फिल्म थी। 

रेटिंग: *

14 August 2013

चेन्नई एक्सप्रेस (2013)

"Critically Disaster & Box Office Acclaimed" इस का इस्तेमाल हम सलमान खान और अक्षय कुमार की ज्यादातर फिल्मों के लिये कर सकते हैं। इन स्टार्स के प्रशंसक इनकी फिल्मों की जी भर कर तारीफ करते हैं, समीक्षकों को गालियाँ देते हैं और फिल्म के कलेक्शन्स को लेकर खासे उत्साहित रहते हैं। चेन्नई एक्सप्रेस से इस श्रेणी में शाहरुख खान भी शामिल हो जायेंगे। 

भारत में मुख्य रूप से दो प्रकार के फिल्मकार हैं। पहले वो जिनकी फिल्में ज्यादातर विदेशी (फिल्म) फेस्टिवल्स में दिखाई जाती हैं। ऐसी फिल्में यहाँ थियेटर में रिलीज़ होने को तरसती हैं और बॉक्स ऑफिस कलेक्शन्स से कोसों दूर रहती है। दुसरे फ़िल्मकार भारतीय फेस्टिवल्स (दिवाली, ईद) के लिये फिल्में बनाते हैं। इनका मुख्य मकसद कम-से-कम १०० करोड़ (बॉलीवुड में आजकल ये ट्रेंड बन चुका है) कमाना होता है। 

निर्देशक रोहित शेट्टी की ये नौवीं फिल्म है। वह इकलौते ऐसे निर्देशक हैं जिनकी चार फिल्में (बोल बच्चन, सिंघम, गोलमाल 3 और अब चेन्नई एक्सप्रेस) १०० करोड़ क्लब में शामिल हैं। अजय देवगन के साथ लगातार आठ फिल्में बना चुके रोहित ने इस फिल्म में पहली बार शाहरुख़ के साथ काम किया है। 

शाहरुख़ ने वास्तव में, इस फिल्म के जरिये अपने आप को ट्रिब्यूट दिया है। इसमें उन्होंने राहुल का किरदार निभाया है। यह उनकी कई रोमांटिक हिट फिल्मों के किरदारों का भी नाम था। अपनी पिछली कई फिल्मों के गानों को वह और दीपिका यहाँ अजीबोगरीब तरीके से इस्तेमाल करते हैं। 

अपने दादा की मृत्यु के बाद उनकी अस्थियों को प्रवाहित करने रामेश्वरम (या छुट्टी मनाने गोवा) जा रहे राहुल की मुलाक़ात मीनाम्मा (दीपिका) से चेन्नई एक्सप्रेस में होती है। मीना को जबरन उसके गाँव कोम्बन ले जाया जा रहा होता है। उसके साथ राहुल को भी उसके गाँव जाना पड़ता है। हालांकि राहुल को कोम्बन गाँव जाने की जरूरत क्यों पड़ती है, ये स्पष्ट नहीं होता। 

गाँव में मीना के पिता का काफी दबदबा है। उसके पिता उसकी शादी तांगाबल्ली (निकितन धीर) के साथ करना चाहते हैं। इस शादी से बचने के लिये भागती मीना आखिर में राहुल को चाहने लगती है। 

दीपिका के ट्रेन में, और फिर बांकी फिल्म में बोलने का तरीका मेल नहीं खाता। फिल्म के अंत तक तो टोन उत्तर भारतीय हो जाता है। 

मुसीबत के समय भी राहुल का मजाकियापन अजीब सा लगता है। जोक्स फिल्म में जबरन ठुंसे गये हैं। लेकिन इस सब में लॉजिक ढूंढने का कोई तुक नहीं बनता। आखिरकार ये रोहित शेट्टी और टीम की एंटरटेनर है। 


शाहरुख़ अपने करियर के उस दौर में हैं, जहां उनके अभिनय के बारे में बात करना व्यर्थ होगा। लेकिन वह इससे बेहतर फिल्में कर सकते हैं। और उन्हें करनी चाहिये। 

रेटिंग: **