अक्षय कुमार और परेश रावल ने एक साथ बहुत सी फिल्मों में काम किया है। लेकिन शायद ये पहला मौका है कि अक्षय एक सपोर्टिंग रोल में हैं और परेश लीड रोल में।
परेश रावल उन चुनिन्दा बेहतरीन एक्टर्स में से हैं जो फिल्मों के साथ थिएटर भी करते हैं। ये फिल्म परेश के ही गुजराती नाटक 'किशन वर्सेस कन्हैय्या' का स्क्रीन एडाप्टेशन है। उस नाटक के लीड रोल में भी परेश ही थे। परेश इस फिल्म के प्रोड्यूसर भी हैं।
कांजीलालजी मेहता (परेश रावल हमेशा की तरह बेहतरीन) की दुकान एक भूकंप में धराशायी हो जाती है। इंश्योरेंस कंपनी इसे 'एक्ट ऑफ़ गॉड' बताकर पैसे देने से मना करती है। जाने अनजाने में यह प्रकरण हमें बताती है की इंश्योरेंस पेपर्स साइन करते समय उसके 'टर्म्स एंड कंडीशन्स' पढना कितना जरुरी है। कांजीलालजी के पास भगवान के खिलाफ केस करने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता। सवाल ये भी है कि भगवान सचमुच में हैं या नहीं। यानी भगवान के पास खुद को साबित करने की भी चुनौती है।
भगवान पे केस करने के बाद कांजी भाई मुसीबत में फंस जाते हैं। ऐसे में भगवान को उन्हें बचाने खुद आना पड़ता है। और यहीं से फिल्म की स्क्रिप्ट कमजोर होनी शुरू हो जाती है। इस मॉडर्न भगवान (कृष्ण वासुदेव यादव) की भूमिका अक्षय कुमार ने निभायी है, जिनकी लेटेस्ट फोटो अभी 'फेसबुक' पर अपडेट नहीं हुयी है।
फिल्म में ढोंगी धर्मगुरुओं और धर्म के नाम पर चल रहे व्यापार की पोल खोलने की कोशिश की गयी है। फिल्म के डायलॉग्स काफी तीखे हैं।
निर्देशक उमेश शुक्ला ने स्क्रिप्ट को अच्छे से हैंडल करने की कोशिश की है। लेकिन आखरी आधे घंटे में वो गड़बड़ा गये। शायद फिल्म को कमर्शियल बनाने के चक्कर में। फिल्म का क्लाइमेक्स निश्चित ही कमज़ोर है। आइटम सौंग की कोई जरुरत नहीं थी।
फिल्म पूरी तरह से परेश रावल की है। अन्य रोल में मिथुन प्रभावित करते हैं। शायद उनका रोल श्री आसाराम बापू से प्रभावित है। फिल्म में एक जगह वो कहते हैं कि 'धर्म एक अफीम है जिसकी लत आसानी से नहीं छूटती'। निश्चित ही वो सही हैं।
रेटिंग: **1/2
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