30 July 2013

भाग मिल्खा भाग (2013)

भाग मिल्खा भाग। मिल्खा के पिता ने मरने से पहले उससे ये तीन शब्द कहे थे। वे लोग गोविन्दपुरा (मुल्तान) के रहने वाले थे जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान में चला गया। आज़ादी के बाद हुए क़त्ल-ए-आम में मिल्खा ने अपने घरवालों को खो दिया। इसके बाद वह अपनी बहन के पास दिल्ली आ गया। यहाँ से मिल्खा के फौज में भर्ती होने और फिर ऐथलीट बनने का सफ़र शुरू होता है।

यह फिल्म 'फ्लाइंग सिख' मिल्खा सिंह के जीवन पर आधारित है। प्रसून जोशी ने काफी रिसर्च करने के बाद फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी। इसके लिये उन्होंने काफी वक़्त मिल्खा सिंह के साथ गुज़ारा। 

चाकू चलाने वाले बच्चे से लेकर फ्लाइंग सिख बनने की मिल्खा सिंह की कहानी को राकेश मेहरा ने बखूबी पेश किया है। फिल्म की शुरुआत 1960 रोम ओलंपिक से होती है। बदकिस्मती से मिल्खा उस दौड़ में पदक जीतने से चूक गये थे। इसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते सुधारने के लिये फ्रेंडशिप गेम का आयोजन होता है, जिसमे बंटवारे के समय की त्रासदी के कारण मिल्खा हिस्सा लेने से इनकार कर देते हैं। मिल्खा को मनाने के लिये नेहरु अपने सहयोगी को चंडीगढ़ भेजते हैं। दिल्ली से चंडीगढ़ के इस सफ़र के दौरान हम मिल्खा की ज़िन्दगी से रूबरू होते हैं। 

फरहान अख्तर ने मिल्खा सिंह की भूमिका में जान डाल दी है। इस के लिए कई महीनों तक की गयी उनकी मेहनत साफ़ दिखाई देती है। वह निश्चित तौर पर नेशनल अवार्ड के हक़दार हैं। इस रोल को शायद ही कोई और इतने समर्पण के साथ निभा पाता। यह रोल पहले अक्षय कुमार करने वाले थे। अगर वह ये भूमिका निभाते तो शायद ये एक अलग ही प्रकार की फिल्म होती। 

फरहान के बाद दिव्या दत्ता सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। उन्होंने मिल्खा की बड़ी बहन इसरी कौर का किरदार निभाया है। मिल्खा और इसरी के बीच के ज्यादातर दृश्य दर्शकों की आँखें नम कर देती है। इसके अलावा जपतेज़ सिंह (बाल मिल्खा), पवन मल्होत्रा, योगराज सिंह और प्रकाश राज ने भी लाजवाब अभिनय किया है। हाँ, दलीप ताहिल, नेहरु के किरदार में फिट नहीं बैठते। 

शंकर-एहसान-लॉय का संगीत और बैकग्राउंड स्कोर फिल्म का एक और प्लस पॉइंट है। फिल्म के सारे गाने बेहतरीन हैं। इनमे मेरा पसंदीदा गाना 'ओ रंगरेज़' है।

जैसा की इस साल की ज्यादातर फिल्मों के साथ होता आया है, इस फिल्म की लम्बाई भी कुछ कम की जा सकती थी। लेकिन प्रसून जोशी और राकेश मेहरा के लिये इसे समेटना काफी मुश्किल रहा होगा। स्क्रिप्ट उलझी हुयी है। कहानी फ्लैशबैक और फिर फ्लैशबैक में चलती है। फिल्म ज्यादा प्रभाव छोड़ पाती अगर इसे सिंपल तरीके से कहा जाता। लेकिन तब शायद दर्शकों को इमोशनली कनेक्ट करना मुश्किल हो जाता।

रेटिंग: ***

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