शोएब, जिसे फिल्म में
बार बार शोहेब बोला जाता है, बम्बई का सबसे बड़ा
गैंगस्टर है। पुलिस को उसकी तलाश है। हम उसे कभी क्रिकेट मैच के
दौरान स्टेडियम में देखते हैं,
तो कभी किसी फिल्म के सेट और अवार्ड शो में। सरेआम हत्या करने के बाद
वो बड़े आराम से पुलिस स्टेशन से घूम के आ जाता
है। इतना ही नहीं, हम उसे वेश बदल
कर टैक्सी चलाते, पेड़ों के
इर्द-गिर्द नाचते और गाते भी देख सकते हैं।
बॉलीवुड में हर दूसरी फिल्म का सीक्वल बनना अब आम बात हो गयी है। ज्यादातर सीक्वल्स (जोकि हड़बड़ी में बनायी गयी होती है) से स्टोरी और स्क्रिप्ट गायब होती है। इसके बावजूद कभी कभी निर्देशक दर्शकों को बाँधने में कामयाब हो जाते हैं। उदाहरण के लिये इसी साल रिलीज़ हुई साहब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स में तिग्मांशु बिना स्टोरी के भी दर्शकों को पौने तीन घंटे तक बाँधने में सफल हुये थे। लेकिन वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा शुरू से अंत तक उबाऊ और बोझिल है।
फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी स्टोरी और स्क्रिप्ट (अगर फिल्म में वाकई है तो) है। यहाँ मिलन लुथरिया कंफ्यूज नज़र आते हैं। फिल्म ना तो गैंगस्टर ड्रामा है, ना ही लव ट्रायंगल। फिल्म के तीनों मुख्य पात्र यहाँ शायराना अंदाज़ में धांसू डायलॉगबाज़ी करते नज़र आते हैं।
अक्षय और इमरान खान अपने अपने रोल में फिट नहीं हैं। अक्षय ने इससे पहले कई नेगेटिव किरदार निभाये हैं। लेकिन यहाँ उन्होंने पुरी तरह से ओवर-एक्टिंग करी है। यहां तक की इमरान हाशमी ने इस फिल्म के प्रीक्वल में उनसे कहीं बेहतर एक्टिंग की थी।
इमरान खान पर गैंगस्टर रोल सूट नहीं करता। सोनाक्षी जितनी बेहतरीन लूटेरा में थी, उतनी ही खराब इस फिल्म में। केवल पितोबाश और अभिमन्यु सिंह कुछ प्रभावित करते हैं, जो फिल्म के महज दो-चार दृश्यों में नज़र आते हैं।
कुल मिला के वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा देखने की बजाय वन्स अपॉन … मुंबई (2010) को दोबारा देखना अच्छा रहेगा। वो इससे कहीं ज्यादा, ज्यादा बेहतर फिल्म थी।
रेटिंग: *